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ग़ज़ल
लब पे हम जिन के लिए लफ़्ज़े-करम रखते हैं
आज कल हम पे वही नज़रे-सितम रखते हैं
हमने ऐ दोस्त निभाई हैं वफ़ाएँ अब तक
लोग तो सिर्फ़ वफाओं का भरम रखते हैं
कोई शिकवा है न अब हमको ग़मे-दुनिया ही
ज़हन में तेरे ख़्यालों की इरम रखते हैं
जिनको आदाबे-सुख़न तक नहीं आता साहब
आज कल वो भी मेरे शेरों पे क़लम रखते हैं
तौबा तो तोड़ चुके कब की सरे-मयख़ाना
पर सनम आज तेरे सर की क़सम रखते हैं
ये मुहब्बत है, इबादत है, सलीक़ा भी है
चूम कर संगे - दरे - यार क़दम रखते हैं
उम्र से, इल्म से, तालीम से तोलो न हमें
तर-ब-तर ख़ून में हम दिल का क़लम रखते हैं
होशयारों के भी जो होश उड़ा दी "आलम"
अपने अशआर में वो रंग भी हम रखते है
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