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पन्ने डायरी के
मुझ पर चढ़े कुछ कुसुम ही तो साथ ले जाना चाहु, कितना ही भार बढ़ेगा तेरे सर्ग नर्क पर
दफना दिया जाए तो भी क्या,एक मुठ्ठी मिट्टी की ही तो बात हैं, कितना ही भार बढ़ेगा तेरे सर्ग नर्क पर
ऊढ़े जो कफन मुझपर, तो कितना ही सही कुछ गर्माहट साथ ले जाना चाहु भी तो, कितना ही बढ़ेगा तेरे सर्ग नर्क पर
आँसु बहे मुझपर, कुछ बूंद ही सही ले आना चाहु सूखते गले की प्यास बुझाने को,कितना ही भार बढ़ेगा तेरे सर्ग नर्क पर
जो वेदना भरे स्वर उठे तो कितने ही सही, ले आना चाहु उन स्वर की कंपन को, कितना ही भार बढ़ेगा तेरे सर्ग नर्क पर
दहलिज से मशान तक की अवधि से ही सही, कुछ समय ले आना चाहु, कितना ही भार बढ़ेगा तेरे सर्ग नर्क पर
जो कुछ धन इकठ्ठा हुआ तो सही जलाने को, तेरी मचान के चार पाऊं की लकड़ी लाना चाहु,कितना ही भार बढ़ेगा तेरे सर्ग नर्क पर
जो बहु मैं पानी में, तो कुछ शीशी ही सही पानी लाना चाहु, कितना ही भार बढ़ेगा तेरे सर्ग नर्क पर
जो इस्नेह मिला मुझ अपनो से ही सही, कुछ मिठास ले आना चाहु, कितना ही भार बढ़ेगा तेरे सर्ग नर्क पर
जो नजर मिली मुझको इस जहान की रंगगत ही सही, कुछ तस्वीरे ही ले आना चाहु,कितना ही भार बढ़ेगा तेरे सर्ग नर्क पर
माना छुँछे भेजा, क्या छुँछे आने को?
कुछ ही सही लाना चाहु, कितना ही भार बढ़ेगा तेरे सर्ग नर्क पर।

~शिवम् पाल



© शिवम् पाल