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प्रेम:ऐसा भी
© Shivani Srivastava
तुम प्रेम को बन्धन समझते हो,मैं प्रेम को बंधनहीन मानती हूं...
सीमाओं की समझ शायद है मुझे,अपनी सीमाओं में रहना भी जानती हूं।
प्रेम का इक ही स्वरूप तो नहीं है, वो भिन्न भिन्न रुपों में देखा जा सकता है.…
प्रेम कोई योजनाबद्ध कार्य नहीं,ये एहसास तो कोई कभी भी पा सकता है।
तुम सोचते हो कुछ तो चाह होगी,मैं सिर्फ़ अटूट विश्वास चाहती हूं...
तुम चाहते हो प्रमाण प्रेम का , मैं सिर्फ़ प्रेम का एहसास चाहती हूं।
तुम ढूंढते हो प्रेम की वजह कि कोई ख्वाहिश,कोई चाह है मुझे...
मैं सिर्फ़ चाहती हूं तुम्हारी ख़बर, जाने क्यूं तुम्हारी परवाह है मुझे।
तुम सोचते हो बदलेगा ये सब, मैं सोचती हूं अब हमेशा याद रहोगे...
मत सोचना कि ये तुम्हारी राह में बाधक बनेगा,तुम तो इससे आज़ाद रहोगे।
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