...

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मैं और तुम
मैं और तुम
यानी नदी के दो किनारे,
जो साथ तो रहते हैं,
पर कभी मिलते नहीं।
सफर अंतहीन हो भले ही
फिर भी साथ हैं रहते।
बरसातों में,
उफानों में,
सुनसान जंगलों में साथ
भटकते हैं,
चोटिल होते हैं द्वीपों से टकराकर,
थोड़े डगमगाते हैं,
सामान्य गति से मीलों तय करते हैं,
ताप सुलगते सूरज की संग
सहा करते हैं,
तट पर बैठे किसी कवि की रचना
का अंश कभी बनते हैं,
तो कभी पति की अस्थियां विसर्जित करती
दुखियारी के दुख के भागी बनते हैं,
साथ चट्टानों से गिरते हैं,
साथ सागर में समाते हैं,
हर दिशा में साथ बहते हैं,
पर कभी नहीं मिलते हैं,
हम नदी के वो दो किनारे हैं
जो बस साथ रहते हैं।
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