...

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मुस्कराहट...!
कैसे कैसे सपने देखा करती थी मैं,

यकिनन नादान थीं मैं।



दुनियादारी की समझ अगर पहले ही आती,

ऐसे पंख फैलाने की जुर्रत ना करती।



इतने फासले क्यों है किताबी बाते और हकीकत में?

मानों दिल की धड़कनें दिमाग को उलझा रही हैैं।



मन की मासुमियत को वक्त ने समझदारी में कुछ ऐसे पिघलाया है कि,

जिम्मेदारी के चलते आशाओं को दफ़न कर रहे हैं।



एक एक दिन कटता है लोगों को तवज्जो देने में,

बस एक लम्हा तलाश रहे हैं कि दिलसे मुस्कुरा लें।


© fiery_fairy