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वाणी अर्चना
शुभवसनधरे, श्वेता , बसी सादगी में ;
स्फटिकधरवरे  , वीणा रखी हाथ वाणी;
रतन शत खची अंगों सुहाते तिहारे ,
जन सब रहते तुम्हार सेवी सदा ही ।
गरदन लटके शोभा बढ़ाते प्रसूनों ;
कमल पर बिठी शुभ्रा रमी गीत में हो,
उड़ - उड़ करती यात्रा मरालों चढ़ी तू ;
कुमुद - विसुषमा धारे रही भारती हो ।
रमकर धुन में तू योग की मल्लिका-सी ,
परमविद बनी लक्ष्मी रखें पास तो को ;
अज सह रचती मां , सृष्टि की हो प्रणेता ,
सुजन-जहन में भाषा-स्वरूपा बसी हो।

© ('वाणी अर्चना' के कुछ अंश)



शब्दार्थ
वसन =वस्त्र, धरे =धारण करने वाली,
स्फटिक =एक प्रकार का रत्न,
वरे =श्रेष्ठा या वरदान देने वाली ,
वाणी =सरस्वती , शत =100 ,
सुहाते= शोभते ,खची =जुड़ी हुई ,
प्रसून =फूल , मराल =हंस ,कुमुद =कमल ,
विसुषमा =विशेष सुंदरता ,मल्लिका=मालकिन परमविद = अत्यंत जानकार , अज=ब्रह्मा ,प्रणेता= जन्म देने वाली ,सुजन =सज्जन लोग ,जहन =दिमाग।


© शैलेंद्र मिश्र 'शाश्वत'