...

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ग़ज़ल _: हैं एक शायर का ख़्वाब आँख़ें
बह़र_:- 12122,12122

झुकीं झुकीं बा हिजाब आँख़ें
हैं एक शायर का ख़्वाब आँख़ें

वो हिज्र में मेरे कितना रोये
ये मांगती हैं हिसाब आँख़ें

किया जो दीदार ‌मैनें उसका
तो हो गईं कामयाब आँख़ें

मैं हाल ए दिल इनमें पढ़ रहा हूँ
ये बन गईं हैं किताब आँख़ें

कि रात दिन जो बरस रहीं हैं
ये उसके ग़म में जनाब आँख़ें

ज़रा तू बच के यूँ मुझसे रहना
कि कर रहीं हैं ख़िताब आँख़ें

कभी नहीं मैंने ऐसी देंखी
जहाँ में ये लाजवाब आँख़ें

नज़र को अपनी झुका लो नीचें
ये ढा रहीं हैं अज़ाब आँख़ें

कहीं ये गुमराह तुझें न कर दें
सराब हैं ये सराब आँख़ें

ऐ "मुंतज़िर" सोहबत में उसकी
ये हो न जायें खराब आँख़ें