...

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डगर
खोकर यह पहचान स्वयं की
चलती राहे निहार पथ मंजरी
कभी लिपटती धुंध अहम् की
कही छेड़ती तपिश वक्त की
स्वाध्याय की थाम लकुटिया
बढ़ती फिर भी मगन बंवरिया
दिखावटी भी शक्ले कितनी
अख्तियार करता यह मधुबन
चकाचौंध का बिंब बना फिर
करे ठिठोली दर्पण मन की
बाते करता रोष, दोष भी
ख्वाहिशे देखो मुख चिढ़ाती
वृष्टि नयन की धरा भिगाती
चोरो जैसे करे गुप्तचरी
कमान यह कैसी तूने संभाली
बची कसर इस जग ने निकाली
विडम्बना की लहरे बढ़ती
पलभर मे सुख चैन छीनती
बंधनो को फिर भी काटती
ढिठाई से हर एक कदम बढ़ाती
हो मगन फिर चली अकेली।