...

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पहचान का फ़र्क..
किसे ढूँढती हूँ मैं इन तर्क कुतर्क के वर्कों में
रिक्तता की पहचान लिए
विश्वास अविश्वास भरे वितर्कों में

आईने में मेरा मैं ही क्यों दिखता नहीं
श्वेत विरक्त भाव पर दाग़ हैं कितने
ढाँक दो आईना चाहे जिससे..दाग़ छुपता नहीं

क्या छिन गए मेरे विचार, मेरे ज्ञान, समझ सब
बेमोल मेरी पहचान के टुकड़े में बिखरे
उपजा हुआ ये फ़र्क इस समाज में कहीं बिकता नहीं

तर्क का ये फ़र्क
शब्दों की प्रतिध्वनि के संदर्भ में भी
काग़ज़ के कोरेपन पर कभी कभी
श्वेत श्याम या रंगीनियों में भी
...बिछता नहीं



© bindu