...

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जिसपर ऐतबार था मुझे
किस किनारे पर खड़े रहूं
और किस किनारे पर जाऊं
इन बेचैन हवाओं से
खुद को कहां छुपाऊं

दाएं बाएं हर करवट में महसूस होती है आहट तेरी
रुह के एक एक कतरे में पढ़ चुकी है सिलवटें मेरी
न यहाँ न वहां सुकून है की कहीं मिलता ही नहीं
घुटन सी है जो जकड़ती जा रही है सांसों को मेरी

वो जिसपर ऐतबार था मुझे दुनिया भर से ज्यादा
आज पास जाकर देखा तो एक पल के लिए
दिल का धड़कना ही रुक गया
एक पर्दा था कोई आँखो पे मेरी
आज कांच फिसल के टूट गया

उसे ना चाहकर भी भूला न पाई थी कभी
उसके टक्कर का प्यार ढूंढती रही दुनिया में हर कही
पर आज जाके जाना मैंने,
वो टक्कर की मोहब्बत थी मुझे ही दिखती रही
वो जो दिखती रही वो असल में थी ही नहीं

मुझे लगता था मैं उसे जानती थी
मुझसे मोहब्बत उसकी पहचान थी
उसका मोह मेरे जीवन का सबसे बड़ा भ्रम था
बस इसी सच से मैं आज तलक अनजान थी
© Shweta Rao