जिसपर ऐतबार था मुझे
किस किनारे पर खड़े रहूं
और किस किनारे पर जाऊं
इन बेचैन हवाओं से
खुद को कहां छुपाऊं
दाएं बाएं हर करवट में महसूस होती है आहट तेरी
रुह के एक एक कतरे में पढ़ चुकी है सिलवटें मेरी
न यहाँ न वहां सुकून है की कहीं मिलता ही नहीं
घुटन सी है जो जकड़ती जा रही है सांसों को मेरी
वो जिसपर ऐतबार था मुझे...
और किस किनारे पर जाऊं
इन बेचैन हवाओं से
खुद को कहां छुपाऊं
दाएं बाएं हर करवट में महसूस होती है आहट तेरी
रुह के एक एक कतरे में पढ़ चुकी है सिलवटें मेरी
न यहाँ न वहां सुकून है की कहीं मिलता ही नहीं
घुटन सी है जो जकड़ती जा रही है सांसों को मेरी
वो जिसपर ऐतबार था मुझे...