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एक अजन्मी बच्ची का दर्द (भ्रूण हत्या विशेष कविता) ....
आखिर क्या कसूर है मेरा , माँ !
जो तुम मुझे अपने कोख में ही मारने की सोच रही हो,
आखिर क्यों, आखिर क्यों माँ!
इस संसार में आने से तुम मुझे रोक रही हो।
आखिर तुम्हारी ऐसी क्या मजबूरी है माँ!
जो भ्रूण हत्या करना जरूरी है,
आखिर किस बात की हमें सजा देने के लिए
तूने अपने ममत्व को दी मंजूरी है ।
क्या तुझे मुझसे प्यार नहीं है?
या फिर तुझे खुद पर इतवार नहीं है।
क्या तुम खुद ही नहीं चाहती, मैं जन्म लूं
हसूं - मुस्कुराऊँ, खेलूँ - कूदुं, पढ़ूँ - लिखूँ और अपनी एक पहचान बनाऊँ।
क्या तुम नहीं चाहती, मैं अपनी कामयाबियों का परचम लहरा तेरा सिर गर्व से ऊंचा उठाऊँ।
आखिर क्यों, अपनों की खुशियों के खातिर पूरे जमाने से लड़नेवाली , आज अपने आप से हार रही हो,
मेरे स्वर्णिम सपनों के संसार को तुम अपने ही हाथों से उजाड़ रही हो।
मैं बोझ नहीं हूँ , माँ! मैं तुम्हारा खून हूँ, तुम्हारा अपना खून
तुम ही मेरी हिम्मत हो, मेरी ताकत हो, मेरा हौसला हो।
यूँ इस तरह से तुम खुद ही हिम्मत हार जाओगी
तो बताओ फिर मुझे कौन संभालेगा।
जब तू ही मेरा साथ ना दोगी, माँ!
तो फिर मैं किसका साथ मांगूगी ।
एक तेरे सिवाय मेरा अपना और कौन है ,माँ !
आज तू इस तरह से अपने कोख में ही मुझे मार देगी
तो एक भाई अपनी कलाई पर राखी किससे बंधवायेगा,
घर में नवरात्रि का पूजा बिना कन्या - पूजन के भला कैसे सफल हो पायेगा।
आखिर संसार में एक पुरुष भला किससे अपना ब्याह रचायेगा ,
संम्पूर्ण सृष्टि में मानव का अस्तित्व फिर भला कैसे बच पायेगा।
मेरे कहे इन सब बातों को थोड़ा - सा विचारो ,
तुम माँ!
मैं तेरे लिए एक बोझ नहीं हूँ , माँ ! मुझे अपनी कोख में ही मत मारो, तुम माँ!
जिंदगी के बजाय मत सुलाओ मुझे मौत के आगोश में, तुम माँ!
मेरी नन्ही सांसों को मत कर दो हमेशा के लिए खामोश , तुम माँ!
— Arti Kumari Athghara (Moon) ✍✍
© All Rights Reserved
जो तुम मुझे अपने कोख में ही मारने की सोच रही हो,
आखिर क्यों, आखिर क्यों माँ!
इस संसार में आने से तुम मुझे रोक रही हो।
आखिर तुम्हारी ऐसी क्या मजबूरी है माँ!
जो भ्रूण हत्या करना जरूरी है,
आखिर किस बात की हमें सजा देने के लिए
तूने अपने ममत्व को दी मंजूरी है ।
क्या तुझे मुझसे प्यार नहीं है?
या फिर तुझे खुद पर इतवार नहीं है।
क्या तुम खुद ही नहीं चाहती, मैं जन्म लूं
हसूं - मुस्कुराऊँ, खेलूँ - कूदुं, पढ़ूँ - लिखूँ और अपनी एक पहचान बनाऊँ।
क्या तुम नहीं चाहती, मैं अपनी कामयाबियों का परचम लहरा तेरा सिर गर्व से ऊंचा उठाऊँ।
आखिर क्यों, अपनों की खुशियों के खातिर पूरे जमाने से लड़नेवाली , आज अपने आप से हार रही हो,
मेरे स्वर्णिम सपनों के संसार को तुम अपने ही हाथों से उजाड़ रही हो।
मैं बोझ नहीं हूँ , माँ! मैं तुम्हारा खून हूँ, तुम्हारा अपना खून
तुम ही मेरी हिम्मत हो, मेरी ताकत हो, मेरा हौसला हो।
यूँ इस तरह से तुम खुद ही हिम्मत हार जाओगी
तो बताओ फिर मुझे कौन संभालेगा।
जब तू ही मेरा साथ ना दोगी, माँ!
तो फिर मैं किसका साथ मांगूगी ।
एक तेरे सिवाय मेरा अपना और कौन है ,माँ !
आज तू इस तरह से अपने कोख में ही मुझे मार देगी
तो एक भाई अपनी कलाई पर राखी किससे बंधवायेगा,
घर में नवरात्रि का पूजा बिना कन्या - पूजन के भला कैसे सफल हो पायेगा।
आखिर संसार में एक पुरुष भला किससे अपना ब्याह रचायेगा ,
संम्पूर्ण सृष्टि में मानव का अस्तित्व फिर भला कैसे बच पायेगा।
मेरे कहे इन सब बातों को थोड़ा - सा विचारो ,
तुम माँ!
मैं तेरे लिए एक बोझ नहीं हूँ , माँ ! मुझे अपनी कोख में ही मत मारो, तुम माँ!
जिंदगी के बजाय मत सुलाओ मुझे मौत के आगोश में, तुम माँ!
मेरी नन्ही सांसों को मत कर दो हमेशा के लिए खामोश , तुम माँ!
— Arti Kumari Athghara (Moon) ✍✍
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