तक़दीर आज ले के है आ गयी कहाँ पे
तकदीर आज ले के है आ गयी कहाँ पर
दिखती नहीं बहारा काँटे उगे यहाँ पर
लूटा विधान अपना रहबर मिला है कैसा
कैसे यकीन आये अंजान हमरहाँ पर
सब पे लगाता धारा वो देश द्रोह का है
ताले जड़े है सब लिखने वालों की जुबाँ पर
किलकारियाँ घरों में थी खूब गूंजा करती
बिजली गिरी है आके क्यों मेरे आशियाँ पर
सूरत है भोली भाली लेकिन वो निकला ज़ालिम
हम होश थे गवाएँ उसके हसीं दहाँ पर
जितेन्द्र नाथ श्रीवास्तव "जीत "
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