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चक्षु कैसे मूंद सकता हूँ?
कैसे लिखूं मै कुमकुम बिंदिया, रोली कंगन की झनकार,
जब माता के आंगन में, मचा हुआ है हाहाकार।
कोई भोंकता पीठ मे खंजर, कोई वक्ष पर ताने तलवार,
कोई देश की बोली लगाता, संस्कृति पर करता प्रहार।
कोई बांटता जाति धर्म में, करवाता जन मे दंगे,
कोई देशभक्ति की आड़ में, बैरी से लड़वाता जंगे।
कोई सेना के सौर्य बल पर, प्रश्न चिन्ह उठाता है,
कोई अदालतों की चौखट पर, न्याय की बोली लगाता है।
कोई बैठ कर संसद में, जन गण की दंभ भरता है,
छलकपट से छद्म भेष में, जन मानस जख्मी करता है।
ऐसे निर्मम हालतों मे मैं, चुप कैसे रह सकता हूँ?
माता मेरी विलख रही, मै चक्षु कैसे मूंद सकता हूँ?

ऐसे कुकृत्यों पर कहीं, धरती डोल गया होगा,
भूमंडल के बाहर कहीं, अंबर बोल गया होगा।
निष्ठुरता से क्रुद्ध हो कर, किसी ने रेखा खींची होगी,
आखों में अंगारे भर कर, लहू सी नीर बही होगी।
कहीं दरिया के मीठे जल मे, खार उमड़ आया होगा,
कहीं भगत सिहं के रगों मे, लावा दौड़ गया होगा।
कहीं चंद्रशेखर के हाथो में, पिस्टल तन गई होगी,
कहीं कुँवर के बाजुओं मे, तलवारे चमक गई होगी।
बहने सजग हुई होंगी और भाई शहीद हुए होंगे,
जब सरहद पर बैरी ने, छिप कर घात किए होंगे।
पतितों के पथभ्रष्ट मार्ग की, पीड़ा कैसे सह सकता हूँ?
भारत माता विलख रही, मै चक्षु कैसे मूंद सकता हूँ?

जब कोई द्रोही षडयंत्र से, जो दंगे करवाएगा,
हो जाएंगे स्वर बुलंद, कोई प्रेमी डट जाएगा।
माता की मर्यादा को जब, पापी दाग लगाएगा,
जाग उठेगी नारी रणचंडी, कोई बागी हो जाएगा।
भस्म मलेंगे जब योद्धा, छल-छल लहू तब छलकेंगे,
बज उठेगी रणभेरी, जन-जन यौवन फिर गरजेंगे।
कट जाएंगे शीश अरि के, मिट्टी मे मिल जाएंगे,
जो भिड़ेंगे महावीरों से, खाक-खाक हो जाएंगे।
कदमो में होगा सिंधु, शिखर खुद ही शीश झुकाएगा,
ऊँचे गगन में शान तिरंगा, लहर-लहर लहराएगा।
व्यभिचार सम्मुख हरगिज, नत्मस्तक नही हो सकता हूँ,
भारत माता विलख रही, मै चक्षु कैसे मूंद सकता हूँ?

© मृत्युंजय तारकेश्वर दूबे।

© Mreetyunjay Tarakeshwar Dubey