...

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मंझ़र.....
देख़ा हैं मैंने उनको
बेवज़ह जलते हुए
बेजुबान थें वो
और एक वो
ज़बान चलाने वाले ।।

बिक गया इन्सान था
निलाम़ हुई थी, इन्सानियत भीं
झुकें सर, बुझ़ी आँख़े
सुखें पेड़ सा बदन, और
चलती-फिरती लाशें जैसी ।।

देख़ा हैं मैंने उनको ,
जलते हुए
जो नद़ी के
करिब रह़ते थें ।।

कितना अज़िब मंझर था वो'................

©सुबोध जोशी
10-08-2020

© Subodh Digambar Joshi