हैवानियत का समाज।
दूर बाग़ एक कली खिली,
लगती भी थी बहुत भली।
सुंदरता की ना उसका पर,
खुसबू भी थी बहुत अपार।
जिस बगिया मे जन्मी थी,
मना हमेशा उसको अपना परिवार।
आस पास की पूरी बगिया ने भी,
खूब लुटाया उसपर प्यार।
थी इतनी नादान की वो,
करती थी सबकी खिदमत।
बालकपन मे मस्त मगन,
रचती थी अपनी किस्मत।
किस्मत तो उसने अपनी,
रंगों की कलम से खूब रची।
पर भाग्य मे था कुछ और ही लिखा,
उसकी खुशियाँ नहीं बची।
हैवानियत के भवरे को,
उसका मासूमपन भा गया,
आड़ मे अपने लाड प्यार के,
वो उसका बचपन खा गया।
नोच के रख दिया उसने,
कली के आत्म सम्मान को।
अंधा होकर अपनी हवस के,
खा गया उसकी जान को।
कुछ ना कर पाई वो बगिया,
जिसको उसपर नाज़ था।
क्यूंकि वो भवरा भी तो,
उसकी बगिया का महमान था।
खूब शोक मे पौधा डूबा,
क्यूंकि कली ही उसकी शान थी।
लेता था सकती बेशक़ सूरज से,
पर वो कली ही उसकी जान थी।
कोसता था अपनी किस्मत को,
"मेरी बिटिया थी बहुत भली,
उजाड़ कर रख दी उसकी दुनिया,
कहा थी अभी...
लगती भी थी बहुत भली।
सुंदरता की ना उसका पर,
खुसबू भी थी बहुत अपार।
जिस बगिया मे जन्मी थी,
मना हमेशा उसको अपना परिवार।
आस पास की पूरी बगिया ने भी,
खूब लुटाया उसपर प्यार।
थी इतनी नादान की वो,
करती थी सबकी खिदमत।
बालकपन मे मस्त मगन,
रचती थी अपनी किस्मत।
किस्मत तो उसने अपनी,
रंगों की कलम से खूब रची।
पर भाग्य मे था कुछ और ही लिखा,
उसकी खुशियाँ नहीं बची।
हैवानियत के भवरे को,
उसका मासूमपन भा गया,
आड़ मे अपने लाड प्यार के,
वो उसका बचपन खा गया।
नोच के रख दिया उसने,
कली के आत्म सम्मान को।
अंधा होकर अपनी हवस के,
खा गया उसकी जान को।
कुछ ना कर पाई वो बगिया,
जिसको उसपर नाज़ था।
क्यूंकि वो भवरा भी तो,
उसकी बगिया का महमान था।
खूब शोक मे पौधा डूबा,
क्यूंकि कली ही उसकी शान थी।
लेता था सकती बेशक़ सूरज से,
पर वो कली ही उसकी जान थी।
कोसता था अपनी किस्मत को,
"मेरी बिटिया थी बहुत भली,
उजाड़ कर रख दी उसकी दुनिया,
कहा थी अभी...