...

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Naa mai kuchh keh sakti hu...naa hi chup reh sakti hu
ना मैं कुछ कैह सकती हूँ
और ना ही चुप रैह सकती हूँ
दिल में अरमानो को कढ के स्वयं हि दिया उधेङ जैसे
फल देने का वादा करके सूख गया हो पेङ जैसे
क्यों आसमाँ तक पहँचाया ,कि गिरा के मुझको तोङ दे?
हम जैसे थे अच्छे थे हमे वापस वहीं पे छोंङ दे
तथ्य इकट्ठे कर रहीं हूॅ खुद को यकीं दिलाने के
कि अब भी बाॅकी है तुझमें 'कुछ' गया है जो उसे जाने दे
पर आग लगी हो जो दिल में तो ताप देह पर आएगी
भला ज़ोर देने से रेत कभी मुठ्ठी में टिक पाएगी?
चलो हिसाब फिर सारी बातों का तुमसे कर लेती हूॅ
पर मैं कैसे बोलूं पेहले? नाराज़ भी तो मैं हीं हूँ
काश कि इन शब्दों मे कैद हो रैह जाते मेरे सारे गम
नई सुबह फिर होती और फिर सबकुछ खुलकर कैह पाते हम
क्योंकि आज,
ना मैं कुछ कैह सकतीं हूँ
और ना ही चुप रैह सकती हूँ।
© Saumya Tripathi