...

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कुछ यूं फिसल गया
जाने कब ज़िन्दगी का ,वो खूबसूरत दौर निकल गया,
बचपन का रेत मुट्ठी से ,कुछ यूँ फिसल गया,

ख्वाहिशें जो पूरी होती थी कभी ,पलक झपकते ही,
अब तमन्नाओ का पूरा खाँचा ,मजबूरी में ढल गया,

दर दर भटक कर भी ,कहीं मन्जिल नही दिखती,
हम थम गए और वक़्त , जाने क्यों बदल गया,

कुछ ज़िन्दगी के लम्हें , जो हसीन हुआ करते थे,
बदलता वक़्त उन्हें लेकर , जाने कब निकल गया,

दो वक़्त की रोटी और, एक छत के जुगाड़ में,
उम्र का एक हिस्सा , पल भर में पिघल गया,

बैठे हैं उदासियों से घिरे , उम्मीदों की कब्र पर,
हमें ख़बर न हुई और ,ख़्वाबों का जनाज़ा निकल गया,

आज़ाद पँछी थे कभी , अब एक खोल में सिमट गये,
हम गिर गए हैं गर्त में , ये वक़्त फ़िर भी संभल गया।।

-पूनम आत्रेय