खफा सी मोहब्बत
खुदसे इस कदर टूटे हैं, जैसे शाखों से पत्ते गिरते हैं।
किसी के होने चले थे खुदसे ही दूर बैठे हैं।।
वो मुवक्किल समझते हैं दर्द मेरा।
पर कहाँ दर्द को देख पाते हैं।।
समझ हैं उनको मेरे तनहाई का।
न जाने फिर भी क्यों जुदा-जुदा हमसे रहते हैं।।
कुछ तो शायद हमारी खता है।
या कुछ वक्त ही शायद ऐसा है।।
वो हमसे क्यों रुठे रहते हैं।
हम आज भी समझ नही पाए हैं।।
किसी के होने चले थे खुदसे ही दूर बैठे हैं।।
वो मुवक्किल समझते हैं दर्द मेरा।
पर कहाँ दर्द को देख पाते हैं।।
समझ हैं उनको मेरे तनहाई का।
न जाने फिर भी क्यों जुदा-जुदा हमसे रहते हैं।।
कुछ तो शायद हमारी खता है।
या कुछ वक्त ही शायद ऐसा है।।
वो हमसे क्यों रुठे रहते हैं।
हम आज भी समझ नही पाए हैं।।