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बिरहन
मेघ घीर आते है
बरसने बूंद बैचेन रहती है
तपती बिरहन दबे पाँव
लौट जाती है|
हा!अक्सर आजकल यही होता है
बंद होठ बिन कहकर
अल्फाज कवितायें गिले हो
जाते है
सपनों को नजरें बुनने लगती है
फिर से एक नयी सुबह को लिपटती
हा! अक्सर आजकल यही होता है|
चांदणी ईंतजार में राकेश के
रात का मंजर ढल जाता है
झूलती रात कली अंधेरो से
हार के झुक जाती है
हा! अक्सर आजकल यही होता है|
© Bkt...
बरसने बूंद बैचेन रहती है
तपती बिरहन दबे पाँव
लौट जाती है|
हा!अक्सर आजकल यही होता है
बंद होठ बिन कहकर
अल्फाज कवितायें गिले हो
जाते है
सपनों को नजरें बुनने लगती है
फिर से एक नयी सुबह को लिपटती
हा! अक्सर आजकल यही होता है|
चांदणी ईंतजार में राकेश के
रात का मंजर ढल जाता है
झूलती रात कली अंधेरो से
हार के झुक जाती है
हा! अक्सर आजकल यही होता है|
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