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शीर्षक- उर की वेदनाएँ
शीर्षक: उर की वेदनाएँ
उर की वेदनाओं से हम,कभी बाहर न आ पाए,
कोशिश की बहुत निकलने की इनके पार, पर कभी पार न पा पाए।
जब भी देखा खुदको,तो पाया छल रही है दुनिया हमें,
सब कुछ समझ तो गए पर कभी कह न पाए।
कैसे बतलाएँ उन पीड़ाओं को, जिनसे निकलना मुश्किल रहा,
जब दुःखों ने दस्तक दी अचानक तो उबरना मुश्किल रहा,
छिपा तो लिया हर दुःख को, मुस्कुराहट में बदलकर,
बो मंजर आँखे बंद करके हमेशा सामने आ ही जाता है,
जिस दुःख से हम कभी उबर न पाए।
सिसकियों में ही सिमट गयी प्रेरणाएँ,
कितने सपने विखर गए आँसुओं में बह कर,
हम चाह कर भी नियति को कभी बदल न पाए।
किससे पूछे जादुई तरीके?
जिससे सब सुंदर हो जाए।
दुखों से निजात पाकर,
ज़िंदगी में भोर हो जाए।
कहाँ मिलेंगी बो खुशियाँ जिनमें मुस्कुराते रहें हमारे अपने,
जिसमें सारे सपने साकार हो जाए।
समय का चक्र उलझा ऐसा, सुलझाने में हम खुद उलझ गए,
जैसे विशाल सागर में छोटी सी नौका डूब जाए।
क्यों जीवन इतनी परिक्षाएँ को लाकर आजमाता है हमें
जिनमें उलझ कर हम कभी सुलझ न पाएँ।
✍🏻🌺रिया दुबे🌺✍🏻
thoughtforourmind
(10/09/2023)
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