...

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दर्पण ( कविता )
मै सुंदर हूँ मै स्त्री हूँ
अपनी उम्र से छोटी दिखती हूँ
रोज सबेरे अपने को निहारती
दर्पण देखकर खुश हो जाती ।
भगवान ने मुझे क्या रूप दिया
दर्पण ने हू ब हू उसे उतार दिया ।
मै जानती हूँ दर्पण झूठ नही बोलता
तभी तो उसका अहसान मानती हूँ ।
मै कुरूप हूँ मै दूसरी स्त्री हूँ
मतवाली हूँ पर काली हूँ ।
श्रृंगार मै बढ चढ कर करती
रोज सबेरे आशा मे भगवान से प्रार्थना करती
फिर डर डरकर दर्पण की तरफ आगे को बढ़ती
अपने को बदसूरत देख माथा सुन्न हो जाता ।
काश ! दर्पण मुझे भी सुन्दर दिखाता
एक दिन तो झूठ बोल जाता ।

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