...

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भावशून्य नेत्र
भावशून्य ये नेत्र मेरे
अब इसमें आंसू , मोती
का सृजन ना मात्र है
पत्थर है ये हदय मेरा
अब इसमें ना किसी
का स्थान है ...….मेरे
इस विचलित मन में
ना जाने कैसा अवसाद है
निराशा , के ये घने मेघ
मुझ में अंधकार का
करते संचार है ......
भावशून्य ये नेत्र मेरे
अब कल्पनाओ के
चक्रव्यूह में फसते नही
एक एक पल मुस्कुराते
थे जो चेहरे अब वो भावनाओ
को अभिव्यक्त करते नही
भावशून्य ये नेत्र मेरे
अब कैसे तुम इसमें
मेरे सुख दुख बटोगे
पथ भर लिए मैंने अपने
कांटो से तुम चाह कर भी
इसमें फूलो का पहरा ना
बिछा पाओगे , भाव शून्य
ये नेत्र मेरे , तुम कैसे पढ़
पाओगे ।