दियारखे का बुझा दीप
देह की दीपावली रही है अब,
घरों में,
मन की दीपावली कैद हो रह गई,
किवाड़ों में,
तानों के दीप जलते हैं दियों में,
झांझर अब राग नहीं करते,
शोर करते हैं,
सन्नाटों में,
आदम की लालसा,
धुएं की रेखाएं बना रही है,
कोपड़े जल रहे हैं,
नीर बिना,
आसमां के धाप में,
और मानवता साजिशें रच रही है,
द्वेष की,...
घरों में,
मन की दीपावली कैद हो रह गई,
किवाड़ों में,
तानों के दीप जलते हैं दियों में,
झांझर अब राग नहीं करते,
शोर करते हैं,
सन्नाटों में,
आदम की लालसा,
धुएं की रेखाएं बना रही है,
कोपड़े जल रहे हैं,
नीर बिना,
आसमां के धाप में,
और मानवता साजिशें रच रही है,
द्वेष की,...