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एक कहानी यह भी!
इसको पढ़ रहे सभी लोगों को मेरा प्रणाम ! मित्रों क्या आप सब दिखावे को महत्व देते हैं ? या कभी किसी प्रसंशक की बातों को छोड़कर अपने आप को जानने की कोशिश की है ? शायद नहीं क्योंकि हम उस दिखावे को तथा प्रसंशको की बातों को सच मान लेते हैं और इसके चलते हम दिखावे की मूर्ति बन जाते हैं । यदि इस दौरान हमारी कोई बुराई करे तो वह व्यक्ति हमारे लिए बहुत  बुरा हो जाता है , क्यों ? क्योंकि वह हमे सत्य का ज्ञान करवा रहा  हैं । बस इसी वास्तविकता से मैं आपका परिचय करवाऊंगी इस काव्य -कहानी के द्वारा .


एक समय की बात है ,एक राजा था अभिमानी ।  
प्रसंशा करने वाले को , मानता था सम्मानिय ।
निकालता जो वह गली -नगर से ,सब करते थे यश गान। 
अपने इस झूठे घमंड में, भ्रंमित हो गया नरेंद्र महान । 
सुनिए आगे क्या हुआ इस  चापलूसी के दौरान ।

एक दिन भरे दरबार में , मंत्री -प्रसंशक कर रहे थे बढ़ाई ।
क्या पता था उनको की महंगी पड़ जाएगी , उनको उनकी ही चतुराई ।
महाराज के सर पर मुकुट को कमल सा कहकर स्वांग रचाया ,
कमल के खिलने पर महाराज के कीचड होने को तिरस्कार बतलाया । 
महाराज अपनी निंदा पर क्ररोधित हुए काफी , आखिर प्रसंंशक को मागंनी ही पड़ी माफ़ी ।

जब इतने सूक्ष्म सच से था वो इतना विचलित ,
तब क्या होगा जब कोई इसको पूर्ण सच से दर्पण करायेगा ।
क्या लगता है मित्रों आपको ऐसा अवसर आएगा ।

वसंत पंचमी  के अवसर पर हर्षोल्लासित शाम थी ,
निकली जब  राजा की सवारी चारों ओर जयकार थी । 
प्रसंशको की  भीड़ में था एक याचक विदवान , निर्भयता से आगे बढ़कर रखी अपनी बात , 
सुनिए आगे क्या हुआ इसके तत्पश्चात ।
घमंड में चूर राजा का सत्य से हुआ जब  सामना ।
निंदा समझकर उसने सिपाही  को दिया  आदेश , डाल दो इसे कैद में देकर दोषी का भेष ।

" दोष पराए देेेेखि करि , चला हंंसन्त- हंसन्त।
अपनी याद न आवयी जिसका आदि न अंत ।"

कुछ ऐसा हाल  राजन् का था वे अपरिचित वास्तविक मान से ,
निदंक की   निर्भयता देख प्राकृत लगे उद्देश्य , 
तो सत्य परिचय के लिए धारण करा परिवेश। 
निदंक के कहने पर निकल पड़े शहर भ्रंमण पर, हाथ में लाठी केश बिखेरकर काली कमली ओढ़े सर पर ।  
सुनिये - सुनिये बहुत कुछ हुआ लाते ही यह परिवर्तन । 
अपने ही शहर में करी लोगों की मदद , सोचा था सुनने को मिलेंगे अच्छे शब्द । 
इसी उत्सुकता में दिया अपना परिचय  ,     पूरे शब्द पड़ गये उल्टे , क्योंकि कहा कुछ यूं । 
महाराज इतने गंंदे कपड़े पहनेंगे , ऐसा होगा नहीं इस जीवन पार में । 
उनके पास हमारे लिए समय कहां , वे व्यस्त हैं अपने सुखी संसार में । 
निंदा सुनकर मन हुआ  उदास , आए मन में यह विचार । 

" बुरा जो देेेखन मैं चला ,  बुुुरा न मिलिए कौय , 
जो दिल खोजा अपना मुझसे बुरा न कोय । "

साबित हो गया यह कथन राजन् के अभिमान से , 
याद आई निदंक की तो हाथ जोड़़े़ सम्मान से । 
निदंक के सही महत्व से परिचित हुए सभी माननी पड़ी कबीरदास जी की यह सुंदर कहनी - 

"निदंक नियारे राखिए आंगन कुटी छवाए , बिन पानी साबुन बिना निर्मल करे सुभाय। "

मेरा यह उद्देश्य था कराना इस यथार्थ से ज्ञान ,  
बाहरी परिवेश व्यर्थ है करिए सच्चे ज्ञान का संचार । 
चरित्र उजागर कीजिए, ऊंचे रखिए विचार  
बाहरी आभूषण देेेखकर ईश्वर न करता विचार। 
निश्छल चरित्र देखकर ही होता है , 
हर मनुष्य का  उद्धार । 
तभी तो कहते हैं मित्रों -- 

" जाति न पूछो साधु की पूछ लीजिए ज्ञान, 
मोल करो तलवार  का पड़ा रहन दो म्यान।" 


मित्रों अब तो आप सब को पता ही चल गया कि प्रसंशक - चापलूस भी हो सकते हैं और जरूरी नहीं है कि हर निंदक - गलत हो । राजा को यह समझ आ गया कि स्वाभिमान बाहरी आभूषणों से नहीं बल्कि अपने अतंर्रण को सत्य , निर्मलता और  निष्पक्षता के मोतियों से सजाने से आता  है । 
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