...

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तुम
मानसून की पहली बारिश में नहाती तुम
कागज की नाव बनाकर पानी में बहाती तुम
हाथों को खुला छोड़ आँखों को भींचकर
गालों पर पानी की बुंदों को उकसाती तुम

जमें हुए पानी में कुदकर मस्ती करती तुम
साडी को हलके से उठाके तुम
पैरों से पानी को मुझपर उछालकर
और कितना भिगाओगी मुझे तुम

छाते को दूर कर के अपने हाथ से
खुद पानी में मदहोश भीगती तुम
छाते की छोर के पानी की धार से
और कितना गीला करोगी मुझे तुम

भीगे बदन को तौलिए से पोंछती तुम
सुखे कपडे पहनने को मजबूर करती तुम
अपने गीलें बालों से फिर बौछार करती तुम
क्यों इतना सताती रहती हो मुझे तुम

तुम्हारी तुम में मशगूल तुम
कितनी ख़ुशगवार लगती हो तुम
काश कि ये मौसम सदाबहार हो
और यूँ ही सदैव खिलखिलाती रहो तुम



© ख़यालों में रमता जोगी