...

4 views

चुगलखोर कविता
तुम ना बड़ी चुगलखोर हो
कह देती हो हर राज़ मेरा
मेरी हर खुशी,हर ग़म, हर संवेदना की
चुगली कर देती तुम सबसे।
जब खुश होती हूं
तो अठखेलियां करती हो तुम भी
मेरे मन उपवन में,
चंचल हिरणी के जैसे
कूदती, फांदती, गाती, नाचती।
कभी किसी चिड़िया की तरह उतर आती मन के आंगन में
और अपने कलरव से गुंजायमान करती कोना कोना,
खुशियों का संदेश सुनाती।
कभी इंद्रधनुष सी तुम,
बिखेरती सप्तरंगी प्रेम
कभी फूलों सी नाज़ुक,
नदी जैसी चपल और कभी कभी चंद्रमा सी शीतल भी।
मेरे ग़म में उदास,
मेरे साथ कभी हैरान, कभी परेशान
हर संवेग के साथ बदलती रहती तुम
और सबसे मेरी चुगली करती रहती तुम
तुम्हारी बातों से सब जान जाते मन मेरा।
पर सुनो ना!
आजकल कुछ रूठी हुई सी लगती हो
मुझसे ही कुछ नाराज़ सी दिखती हो
मन के भाव नहीं कहती, शब्दों का साथ नहीं गेहती।
कहो ना! क्यों करती हो ऐसा
क्यों रह जाती हो अक्सर अधूरी आजकल
क्यों मुंह फेर लेती हो
उमड़ते हैं विचार मन में अनेकानेक
पर दिल और दिमाग का साथ नहीं देती हो।
तुम ही रूठ जाओगी, तो कहो!
अपनी सखी कहूंगी किसको
मुझसे खफा तुम हो जाओगी तो
अपने राज़ कहूंगी किसको।
चल! एक काम करें दोनों मिलकर
तू मेरी सुन मैं तेरी सुनती हूं
चुगली कर चाहे, चाहे कर कोई शरारत
पर होना ना कभी तू मुझसे खफा
होना ना कभी तू मुझसे जुदा।
मंजूर हैं मुझे सारी मनमर्जियां तेरी
पर सुन! मुझे छोड़कर ना जाना कभी।
तू है तो निराशा के घोर अंधेरे में भी
ढूंढ पाती हूं थोड़ी सी आशा
तू है तो मिल पाती हूं खुद से ही यदा कदा।
तू ही तो है जो हाथ थाम कर मेरा
ले जाती जिंदगी की ओर
तब जबकि भूल चुकी हूं मुस्कुराना भी आजकल।