चुगलखोर कविता
तुम ना बड़ी चुगलखोर हो
कह देती हो हर राज़ मेरा
मेरी हर खुशी,हर ग़म, हर संवेदना की
चुगली कर देती तुम सबसे।
जब खुश होती हूं
तो अठखेलियां करती हो तुम भी
मेरे मन उपवन में,
चंचल हिरणी के जैसे
कूदती, फांदती, गाती, नाचती।
कभी किसी चिड़िया की तरह उतर आती मन के आंगन में
और अपने कलरव से गुंजायमान करती कोना कोना,
खुशियों का संदेश सुनाती।
कभी इंद्रधनुष सी तुम,
बिखेरती सप्तरंगी प्रेम
कभी फूलों सी नाज़ुक,
नदी जैसी चपल और कभी कभी चंद्रमा सी शीतल भी।
मेरे ग़म में उदास,
मेरे साथ कभी हैरान, कभी परेशान
हर संवेग के साथ बदलती रहती तुम
और सबसे मेरी चुगली करती...
कह देती हो हर राज़ मेरा
मेरी हर खुशी,हर ग़म, हर संवेदना की
चुगली कर देती तुम सबसे।
जब खुश होती हूं
तो अठखेलियां करती हो तुम भी
मेरे मन उपवन में,
चंचल हिरणी के जैसे
कूदती, फांदती, गाती, नाचती।
कभी किसी चिड़िया की तरह उतर आती मन के आंगन में
और अपने कलरव से गुंजायमान करती कोना कोना,
खुशियों का संदेश सुनाती।
कभी इंद्रधनुष सी तुम,
बिखेरती सप्तरंगी प्रेम
कभी फूलों सी नाज़ुक,
नदी जैसी चपल और कभी कभी चंद्रमा सी शीतल भी।
मेरे ग़म में उदास,
मेरे साथ कभी हैरान, कभी परेशान
हर संवेग के साथ बदलती रहती तुम
और सबसे मेरी चुगली करती...