...

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बाकी है इन्तेहान
आज भी बाकी है मेरा इन्तेहां
अब मंजिल की तलाश में भटकता भी नहीं
दूर ही सही पर अब है आस
मेरा ख्वाब अब भी मुझे सोने देता ही नहीं
कभी इस डगर कभी उस डगर
क्या है जो मेरा है भी और मेरा होता ही नहीं
फ़ासले होंगे जरुर हमें यकीं है
हमसफ़र भी नहीं है और गैर होता ही नहीं
अजीब सी बनावटी मुखौटा ओढे है
वो हँसता भी नहीं है और रोता भी नहीं
© रूपेन्द्र साहू "रूप"
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