...

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' नौबहार '
चेहरे देखे कई खास थे,
पर उनमें हम-सफर कोई दिखा नहीं,
इस शहरे-दिल की विरानियों में,
अभी तलक मकाँ कोई बसा नहीं!

नगर है ये आँधियों का,
जिसमें शख्स कोई टिका नहीं,
रहे टूटते पत्र शाख से,
परंतु वृक्ष ये गिरा नहीं!

बेचारगी में जीता कल्ब तकते राह,
पर हुआ कभी ये अफसुर्दा नहीं,
क्योंकि संगेमरमर सी दीवारें इसकी,
बनी अभी मकबरा नहीं!

सादगी-ए-हुस्न पसंदीदा दिल,
बिन इस इल्म हुआ किसी पर फ़िदा नहीं,
मौसम-ए-खिजाँ मुस्तकिल रहता,
इस दिल-ए-तन्हा में आती क्यों नौबहार नहीं!

अखियाँ भी थक गईं निहारे रस्ता,
और करता भी कोई इत्तिलाअ नहीं,
बाद-ए-नौबहार गुजर गया,
और पोशीदगी दूर करता ये सावन भी नहीं!

© Shalini Mathur