...

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रूठी रूठी ज़िन्दगी
खिजां भी गुजर गई पर आई बहार नहीं,
लूँ के थपेड़े ही मिलें चली ठंडी बयार नहीं।

हर कोई ठगता रहा अपना कह-कहकर के,
ज़िन्दगी के सफ़र में मिला सच्चा यार नहीं।

झूठ, फरेब शामिल हुआ इँसा के क़िरदार में,
सच्चाई की इस दुनिया रही कोई पुकार नहीं।

रूठी रूठी ज़िन्दगी छाई है हर तरफ़ निराशा,
बिखर गई ऐसे लड़ने का रहा इख़्तियार नहीं।

सब लुट लिया मोहब्बत का वास्ता दे-देकर,
मिटा-कर के मेरी हस्ती को वो शर्मशार नहीं।

किसको सुनाएँ क्या-क्या गुजरी है "पुखराज"
रहा ख़ुद का ख़ुद पे जैसे अब ए'तिबार नहीं।
© पुखराज

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