...

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मैं कौन
ना कर ये भ्रम तू के सबकुछ है तेरा ,
यहाँ ना कुछ तेरा ना है कुछ मेरा !
जीवन का एक यही है सच...
मृत्यु ही है अंतिम रक्षा कवच ।
धन , दौलत , शान , सौक़त ,
ये रूप, ये यौवन,
सब किस काम का ?
सब होगा लीन , पंचतत्व में विलीन !
फिर क्यों है तू मौन ?
सब शुन्य , सब गौण !
सब धोखा , सब नश्वर !
तो सवाल ... मैं कौन ?
मैं शांत ... मैं सजग ,
मैं अचेत ... मैं धैर्य ,
मैं चंचल ... मैं ही एकाग्र ,
मैं क्रोध ... मैं स्वामित्व,
मैं स्नेहिल ... मैं ही मातृत्व ,
मैं आत्मा .... मैं अनश्वर ,
मुझ में ही है समाया परमात्मा , ईश्वर !
मैं ही आदि , मैं ही अनंत ,
मुझ से ही है समग्र औचित्य - अनौचित्य !
तो गर्व किस बात का ?
आएं थे ख़ाली हाथ, जाना है ख़ाली हाथ,
फिर इंतज़ार किसके साथ का ?
कौन अपना , कौन पराया ?
क्या है खोना, और क्या है पाना ?
हो अब एक ही मक़सद ,
मुस्कुराके जीवन का हर कर्म है निभाना !
ज़िन्दा रहें लोगों के दिलों में सदा ,
हमारा कर्म और ये मुस्कुराना !!