...

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जीवन की शाम हो गयी....
निकले थे पाने को लेकर
फेहरिस्त एक कुछ खास हसरतों की,
जाने कब तमाम खास हसरतें
हमारी आम हो गयी,
हम खुशियाँ ढूँढते रह गए गली कुचों में,
और हमें पता ही ना चला
की कब जीवन की शाम हो गयी...

सजा बाजार था
खुलेआम हर रंग के हसरतों का,
थी लगी बोली
भावनाओं की उस रंगीन बाजार में,
कुछ ने खुशियाँ खरीदी कुछ ने सपने खरीदे,
बिना मोल भाव के
यहाँ पे कुछ ने अपने खरीदे..

हम पहुँचे जब बाजार मे
ढो के जिम्मेदारियाँ अपनी,
पता चला सारी रंगीन
हसरतें वहाँ नीलाम हो गयी,
निकले थे उजाले मे
खरीदने को कुछ हँसी अपने लिए,
और हमें पता ही ना चला
की कब जीवन की शाम हो गयी_!!
© दीपक