...

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मैं एक बार फिर चुप खड़ी रही!
उस विचित्र से चित्र को निहारते,
मैं एक गहरी सोच में पड़ी रही।

क्यों मैं उन जंजीरों और दीवारों के बीच यूं चुप खड़ी रही ?

उस अशांत निस्तब्धता में मेरी आंखें नीचे गड़ी रही ।

मैं यूंही चुप खड़ी रही .....

हिम्मत न हो सकी कि उस अंगार ज्वाल को अपने दृग दिखाऊं!
क्या थी मैं विवश या बाध्य ये कैसे बतलाऊं?

मैं बस चुप खड़ी रही ......

उनकी ग्रीवा का...