...

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आलोक
मैं डूबा था
इस अंधकार में
स्वप्निल संसार में
मैं घिरा था
अजीब सवालों से
मेरे पास जवाब तो थे
लेकिन आवाज ना थी |
मैं क्या करता
कोशिश करके, थक चुका था
मैं जीते जी मर चुका था
यद्यपि मैं निष्प्राण न था
फिर भी क्या करता |
तभी प्रकाश की
एक किरण नजर आई
मानों वह मुझे ही
जगाने के लिए
अंधकार मिटाने के लिए |
मैंने आंखें खोली और देखा
आलोक फैल चुका था
मेरे चुप रहते हुए भी
जवाब मिल चुका था |
© देवेश शुक्ला