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वीर अभिमन्यु
पिता हमारे दूर पड़े थे , रन कौशल में को शूर बड़े थे।
नियति से मजबूर बड़े थे, कौरवों की रणनीति से परे थे।

गुरु द्रोण की कुटिल नीति थी , युद्ध जीतने की प्रीत चढ़ी थी।
पांडूराज युधिष्ठिर को बंदी करने की ये रणनीति बनी थी।


तो गुरुद्रोण की थी कुटिल नीति से, कैसे मुंह फेरता मैं,
खुद अपने ही तात श्री को क्या, बंदी बनते देख ता मैं।

न करता युद्ध अगर रण में मैं , तो आखिर क्या ही करता मैं।
क्या तात श्री को बंदी बनने देता , या मरते दम तक लड़ता मैं।

जो बन जाते तात बंदी हमारे, तो सबको कैसे मुंह दिखलाता मैं।
सारे मिलकर ताने देते, अब किसको क्या ही बतलाता मैं।

चूड़ी का ताना सुन सुनकर, पूरी जिंदगी कैसे बिताता मैं।
न लड़ता रणभूमि में तो, कैसे अपना शौर्य दिखाता मै।

फिर पूरी दुनिया हम पर हंसती, किसको क्या ही साक्ष्य दिखाता मैं।
चुल्लू भर पानी में मरता , खुद को कैसे पार्थ सुत बतलाता मैं।

तो लड़ना ही था एक विकल्प तो मैंने क्या अपराध किया।
न ही मैने कायरता दिखलाई नाही दुश्मन संग घात किया।

और लड़ गया अगर रण भूमि में तो , सबको शौर्य दिखा डाला।
दुश्मन की छाती पर चढ़कर, नाकों चने चबवा डाला।

महज कहानी गर्भ में सुनकर , रन में हाहाकार मचा डाला ।
सुत हूं मैं तो जिष्णु का ही , सबको अपना शौर्य दिखा डाला।

लेकर रथ का पहिया भुज में , भुज का कौशल दिखला डाला।
सोलह वर्षीय बच्चे ने रण में सबको धूल चटा डाला।

अभिमन्यु को व्यूह के छहो द्वार में कोई भी न रोक सका।
था इतना बलशाली फिर भी सता द्वार ना तोड़ सका।

मात सुभद्रा की एक नींद से सारा परिणाम बदल डाला।
खुद माता की एक भूल ने, उसका पुत्र गंवा डाला।

सात सारथी मिलकर कर के, निहत्थे अभिमन्यु पर प्रहार किये।
चक्रव्यूह के सारे नियम तोड़ छल से अभिमन्यु को मार दिये।

मरा गया युद्ध में अभिमन्यु फिर भी, महाभारत में अमर रहा।
मरकर भी रणभूमि मे वो तो एक वीर शहीद बना।