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कुछ सोच नहीं पाती.....
कुछ सोच नहीं पाती हूँ,
कुछ बता नहीं पाती हूँ।
हाल- ए -दिल कुछ ऐसा है आजकल,
सुना है वक्त मरहम है हर ज़ख्मों का।
भर जाता मेरा भी ज़ख्म
पर आलम ये है कि मैं अपना ज़ख्म
वक्त को दिखा नहीं पाती हूँ।
आँखों में धूल जमी है कुछ इस कदर,
साफ- साफ कुछ भी आता नहीं नज़र।
आंधी हीं चली थी ऐसी धूल भरी,
जिसने सारे धूल आँखों में में हीं झोंक दिया।
सोचती हूँ छीटे मार लूँ पानी से आंखों में,
पर आलम ये है कि मैं आंधियों से आँखों
को बचा भी नहीं पाती हूँ।
नाजो में पली हूं,
सालों से एक ही चौराहे पर खड़ी हूँ।
कई अनजान रास्ते हैं उस चौराहे पर।
शायद उन्हीं रास्तों पर मेरी मंजिल भी होगी।
गर हिम्मत करती तो रूबरू हो हीं जाती मंजिल से
पर आलम यह है कि मैं उन रास्तों पर
कदमों को बढ़ा ही नहीं पाती हूं।
कुछ बातें हैं पुरानी
मानो मेरी कहानी।
छोड़ दिया था जिसे लिखना कभी,
अभी वर्तमान की बातें लिखनी थी उसमें।
कर लिया होता उसे पूरा मैंने कब का।
पर आलम यह है कि मैं अपने अतीत
से बाहर आ हीं नहीं पाती हूँ।
© shalini ✍️
#life
कुछ बता नहीं पाती हूँ।
हाल- ए -दिल कुछ ऐसा है आजकल,
सुना है वक्त मरहम है हर ज़ख्मों का।
भर जाता मेरा भी ज़ख्म
पर आलम ये है कि मैं अपना ज़ख्म
वक्त को दिखा नहीं पाती हूँ।
आँखों में धूल जमी है कुछ इस कदर,
साफ- साफ कुछ भी आता नहीं नज़र।
आंधी हीं चली थी ऐसी धूल भरी,
जिसने सारे धूल आँखों में में हीं झोंक दिया।
सोचती हूँ छीटे मार लूँ पानी से आंखों में,
पर आलम ये है कि मैं आंधियों से आँखों
को बचा भी नहीं पाती हूँ।
नाजो में पली हूं,
सालों से एक ही चौराहे पर खड़ी हूँ।
कई अनजान रास्ते हैं उस चौराहे पर।
शायद उन्हीं रास्तों पर मेरी मंजिल भी होगी।
गर हिम्मत करती तो रूबरू हो हीं जाती मंजिल से
पर आलम यह है कि मैं उन रास्तों पर
कदमों को बढ़ा ही नहीं पाती हूं।
कुछ बातें हैं पुरानी
मानो मेरी कहानी।
छोड़ दिया था जिसे लिखना कभी,
अभी वर्तमान की बातें लिखनी थी उसमें।
कर लिया होता उसे पूरा मैंने कब का।
पर आलम यह है कि मैं अपने अतीत
से बाहर आ हीं नहीं पाती हूँ।
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