...

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कुछ सोच नहीं पाती.....
कुछ सोच नहीं पाती हूँ,
कुछ बता नहीं पाती हूँ।

हाल- ए -दिल कुछ ऐसा है आजकल,
सुना है वक्त मरहम है हर ज़ख्मों का।

भर जाता मेरा भी ज़ख्म
पर आलम ये है कि मैं अपना ज़ख्म
वक्त को दिखा नहीं पाती हूँ।

आँखों में धूल जमी है कुछ इस कदर,
साफ- साफ कुछ भी आता नहीं नज़र।

आंधी हीं चली थी ऐसी धूल भरी,
जिसने सारे धूल आँखों में में हीं झोंक दिया।

सोचती हूँ छीटे मार लूँ पानी से...