...

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ग़म -ए-हयात
ये कहां ले के आई है ग़म-ए-हयात मुझे
तारीक रात है दिखती न रोशनाई है

भीड़ बहुत है लोगों की इस ज़माने में
अपना कोई नहीं तन्हाई ही तन्हाई है

रंजिशें इस क़दर बढ़ने लगी हैं अब तो
जीना मुहाल हुआ जान पे बन आई है

तलाश में तेरी गुज़रा शहर-दर-शहर
मिली न कहीं रानाई न आशनाई है

ये कैसा रोग है इश्क़ जिस को कहते हैं
हासिल कुछ नहीं रुसवाई ही रुसवाई है

हसरतें चाहतें राब्ते वास्ते सब ख़त्म हुए,
तन्हा सफ़र है अब मेरी कज़ा आई है।

*तारीक=अंधेरी *हयात=ज़िन्दगी
*रानाई=खूबसूरती *आशनाई=मोहब्बत *कज़ा=मौत
© अमरीश अग्रवाल "मासूम"