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बचपन, जवानी और बुढ़ापा...
बचपन में वो
खिलौने के साथ खेलता है
हमउम्र के साथ लड़ता है
सबसे ज्यादा वो
मां बाप से प्यार करता है

ना किसी नफरत की गुंजाइश
ना वो करता है किसी की बुराई
अपनी दुनिया में मसरूफ
पल में रोता तो
वो पल में हंसता है

छोटी सी उसकी दुनिया
उसी में वो खुश रहता है
ना किसी बात की फिक्र
पिता के कंधे बैठ
खिलौनों का करता है जिक्र
वो तो मां की गोदी में सोता है।।

बचपन बीतता वो
वयस्क बन जाता है
खिलौने छोड़ वो
बड़े उपकरणों में व्यस्थ हो जाता है
मां बाप के साथ साथ वो
औरों की भी परवाह करता है
बड़ा होते ही
वो तो सयाना बन जाता है

प्यार नफरत में उलझा
बाहर की दुनिया में मग्न
वो खुद को ही भूल जाता है
रोना तो छोड़ उसको
हंसना भी नसीब नहीं हो पाता है

बड़ी सी उसकी दुनिया
मगर उसमें भी वो
खुशियां ढूंढता है
हर किसी की फिक्र
ना करता वो
अपने मसलों का है जिक्र
मां की गोदी में रखकर सिर
वो तो कभी कभी सोता है।।

बचपन जवानी के बाद
वो बूढ़ा हो जाता है
सारी ख्वाइशें और फरमाइंसो से
उसका मन भर आता है
बच्चों के बच्चों में ही
उसको सुकून मिल पाता है

अपनी बड़ी सी बनाई दुनिया में
वो अपने घर तक ही
सिमट कर रह जाता है
बाहर की दुनिया से
उसका वर्चस्व कम हो जाता है

रिश्तेदारों से नाता टूट जाता है
मां बाप का साथ
बस यादों में रह जाता है
बच्चों को बुढ़ापे की लाठी मान
वो अपनी जिंदगी जीता जाता है
मां की गोदी में रखकर सिर
वो बस ख्वाबों में सो पाता है।।


© Sankranti chauhan