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बूढ़ा पेड़
राह दिखाता गांव की वो, खड़ा अकेला बूढ़ा पेड़
मोर, पपीहा, नीलकंठ का, एक सहारा बूढ़ा पेड़
चौमासे में भी पतझड़ है, भीतर से खाली-खाली
फिर भी अन्दर जान समेटे, करता सबकी रखवाली
उसकी ही लकड़ी से देखो, 'मुनिया' का घर बना हुआ है
फिर भी आज कुल्हाड़ी लेकर, उसके आगे तना हुआ है
हिम्मत देखो, साहस देखो, कुछ पैसों का लालच देखो
आखिर आज चला जाएगा, रोज गुज़ारा, बूढ़ा पेड़
मोर, पपीहा, नीलकंठ का, एक सहारा बूढ़ा पेड़...
केवल वह यदि लकड़ी होता, तो भी जाना वाजिब था
पर वह तो ना जानें कितने, बेजुबानों का हाफिज़ था
कीमत उसकी पैसों से, कर पाना कैसे मुमकिन है?
ख़ुद का घर गिर जाये तो, क्या रोज बनाना मुमकिन है?
ऐसे लाख बसेरों का वो, नया सवेरा बूढ़ा पेड़
मोर, पपीहा, नीलकंठ का, एक सहारा बूढ़ा पेड़...
सूखा था वो तन से पर, मन से कितनी हरियाली थी
उसपे बैठी कोयल से, चुप होती बिटिया 'लाली' थी
तुमने भी तो कितनी चोटें, खायीं थी उससे गिरकर
कितने मीठे फल तोड़े थे, झुकती टहनी से मिलकर
कैसे इन यादों की कीमत, सिक्कों में तुम तौलोगे?
आज अगर वो बूढ़ा है तो, टुकड़े करके तौलोगे?
फिर मत दोषी बच्चों को, कहना जब घर से जाओगे
तुम भी एक दिन बूढ़े होकर, ऐसे फेंके जाओगे
तब मत याद दिलाना उनको, खुद के किए एहसानो का
बच्चे चखकर ही सीखेंगे, कड़वा स्वाद जुबानों का
कर्म, धर्म, सज्जनता की, बातें करने से क्या होगा
जो बोया है वही मिलेगा, झूठी आशा से क्या होगा
कुछ आशाएं उनकी भी थी, जिनका घर था बूढ़ा पेड़
मोर, पपीहा, नीलकंठ का, एक सहारा बूढ़ा पेड़...
© Er. Shiv Prakash Tiwari