बावला मन
मन
दोराहा तिराहा हर राह पर उलझाता
हर क्षण बस,इस अल्पकालिक सुख की ओर भागता
ना सच जाने ना झूठ पहचाने
ना ही किसी रीत प्रीत को माने
पतंग की तरह उड़ना तो चाहता
पर डोर को बंधन मान बैठता
अहमियत उसकी ना पहचानना चाहता।
बावला इतना
की गिरेगा रोएगा हारेगा
सब करेगा
लेकिन आत्मा विश्लेषण कर
सुधारना ना चाहेगा।
पकड़ बैठता हर बात को
हरी इच्छा भी कुछ होती
ये क्यों ना समझता ,
हर बार सवालों का मचाना...
दोराहा तिराहा हर राह पर उलझाता
हर क्षण बस,इस अल्पकालिक सुख की ओर भागता
ना सच जाने ना झूठ पहचाने
ना ही किसी रीत प्रीत को माने
पतंग की तरह उड़ना तो चाहता
पर डोर को बंधन मान बैठता
अहमियत उसकी ना पहचानना चाहता।
बावला इतना
की गिरेगा रोएगा हारेगा
सब करेगा
लेकिन आत्मा विश्लेषण कर
सुधारना ना चाहेगा।
पकड़ बैठता हर बात को
हरी इच्छा भी कुछ होती
ये क्यों ना समझता ,
हर बार सवालों का मचाना...