बावला मन
मन
दोराहा तिराहा हर राह पर उलझाता
हर क्षण बस,इस अल्पकालिक सुख की ओर भागता
ना सच जाने ना झूठ पहचाने
ना ही किसी रीत प्रीत को माने
पतंग की तरह उड़ना तो चाहता
पर डोर को बंधन मान बैठता
अहमियत उसकी ना पहचानना चाहता।
बावला इतना
की गिरेगा रोएगा हारेगा
सब करेगा
लेकिन आत्मा विश्लेषण कर
सुधारना ना चाहेगा।
पकड़ बैठता हर बात को
हरी इच्छा भी कुछ होती
ये क्यों ना समझता ,
हर बार सवालों का मचाना बवाल
इसकी फितरत का है हिस्सा।।
चार क्षण आगे चार क्षण पीछे
सबकी फिकर है इसे
लेकिन वह चार क्षण जो चल रहे
उन्हे पूछने तक कि भी फुर्सत न इसे।
भागना चाहता
खुद से हालातो से
तभी तो अकेला रहना ना सुहाता
प्रतिपल कुछ ना कुछ चाहता
बहाने ही बहाने बनाता
हर क्षण कुछ चाहता
इन कामनाओं को कभी विराम ना देता।
द्वंद्व में रहता हर क्षण
कभी ना सुनता अंतर की हलचल
जैसे
वो बस चलने देना चाहता हो
इस जीवन के ढोल को
और बजता रहना चाहता
इस पंच माया के भीतर ही।
अपनी विशालता को करे अनसुना
ए मन
तू क्यों रहना चाहता इस सीमित संसार में
एक बार तो रख के देख
स्वयं को श्री हरी के हाथ में ।।....
श्री हरि शर्णम।।
© IwriteWHATtheTruthIS
दोराहा तिराहा हर राह पर उलझाता
हर क्षण बस,इस अल्पकालिक सुख की ओर भागता
ना सच जाने ना झूठ पहचाने
ना ही किसी रीत प्रीत को माने
पतंग की तरह उड़ना तो चाहता
पर डोर को बंधन मान बैठता
अहमियत उसकी ना पहचानना चाहता।
बावला इतना
की गिरेगा रोएगा हारेगा
सब करेगा
लेकिन आत्मा विश्लेषण कर
सुधारना ना चाहेगा।
पकड़ बैठता हर बात को
हरी इच्छा भी कुछ होती
ये क्यों ना समझता ,
हर बार सवालों का मचाना बवाल
इसकी फितरत का है हिस्सा।।
चार क्षण आगे चार क्षण पीछे
सबकी फिकर है इसे
लेकिन वह चार क्षण जो चल रहे
उन्हे पूछने तक कि भी फुर्सत न इसे।
भागना चाहता
खुद से हालातो से
तभी तो अकेला रहना ना सुहाता
प्रतिपल कुछ ना कुछ चाहता
बहाने ही बहाने बनाता
हर क्षण कुछ चाहता
इन कामनाओं को कभी विराम ना देता।
द्वंद्व में रहता हर क्षण
कभी ना सुनता अंतर की हलचल
जैसे
वो बस चलने देना चाहता हो
इस जीवन के ढोल को
और बजता रहना चाहता
इस पंच माया के भीतर ही।
अपनी विशालता को करे अनसुना
ए मन
तू क्यों रहना चाहता इस सीमित संसार में
एक बार तो रख के देख
स्वयं को श्री हरी के हाथ में ।।....
श्री हरि शर्णम।।
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