...

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खफ़ा किताबों की दुनिया से
किताबों की दुनिया में रहने वाले,
अब किताबों से डरने लगे।
जहाँ पहलें सारी बातें,
किताबों से होती थी,
वहाँ अब दिन बिस्तर के,
सिरहाने पड़े बीतने लगे।
जहाँ ईश्क़ किताबों से था,
तब तक सब ठीक था,
वहां अब नजरें बचाने लगे,
झांका बाहर क्या,
किताबों की दुनिया से,
हम वहीं खो गये,
लापता ऐसे हुए कि,
रास्तें मिले नहीं,
और मंजिलें दिखी नहीं,
बीच सड़क पर खड़ें ये सोचते अब,
कि कोनसी राह घर को ले जाती मुझे।
भागते ऐसे हम,
खुद को लेके,
जैसे किताबें हमें,
हमारा आईना दिखाने लगी।
क्या थे,
और क्या बन गए,
मोहब्बत की बातें तो करो ही ना,
पहलें जहाँ ईश्क़ जुबां पर हर वक़्त ही रहता था,
अब ऐसा हुआ क्या,
जो तुम खुद से भी नफ़रत करने लगे,
क्यों देखने लगे हर किसी को शक की निगाहों से,
ऐसा क्यों लगता हैं कि,
तुम तो लौट आये,
पर शायद सारे जज्बात कहीं छोड़ आये हो।
भागने लगे खुद से भी,
कोने घर के पकड़ने,
आँखों मे बातें बहुत सारी थी,
पर ना जाने ये लफ्ज़ क्यों सिले तुमने थे,
क्यों डरे इतने थे,
कि खामोशी में खुद को खोजते थे,
ऐसा हुआ क्या तुम्हें,
कि तुम अचानक इतना बदल गये,
आईने में एक बार देखो तो सही,
तुम्हें पता चलेगा की तुम अब तुम नहीं रहें।


© shivika chaudhary