...

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प्रेम अभिसार
रात का, प्रहर पर से पकड़ छोड़ने में अभी थोड़ी सी देर और थी ।
सूरज की किरणें क्षितिज पर पड़ने में, अभी थोड़ी सी देर और थी ।
फुल जो सूख चुके थे डाली पर, उसे झड़ने में अभी थोड़ी सी देर और थी ।
चल रही थी सबसे छिपाकर प्रेम अभिसार ।
पिघल रही थी धीरे-धीरे जमे हुए व्यथा अपार ।
नैनों में काजल बिखरी हुई,
काया में आंचल उलझी हुई
सांसों में गरमाहट,
धड़कनें तेज़ और दिलों में घबराहट,
ढल रहे थे आहिस्ता-आहिस्ता, एक दूसरे में दो तन ।
जैसे, एक आत्मा और दो बदन का, हो रहा है मीलन ।
इतने में ही, किसी और ने खटखटाया उसके दिल के चौखट को ।
दौड़ पड़ा वो उसकी ओर, पिछे छोड़ चादर की सिलवट को ।
अंतिम विदाई - हमने भी जताई -
अभिलाषाओं के, सिलसिलों का आगे और बढ़ने में,
अभी थोड़ी सी देर और थी ।।