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बुध का सार
पीड़ादायक होती है जुदाई,
बात समय के साथ है समझ आयी।
जब अंत पीड़ा ही है तो,
लगाव आखिर किससे लगाए?
तन से लगाए, धन से लगाए,
या लगाए विभिन्न रिश्तों से।
टिक-2 करती घड़ी की सुई,
एक दिन सब कुछ ही तो मिटाए।
फिर किस पर अभिमान का भाव जगाए,
किस पर अपना अधिकार जताए।
जितना भी यह लगाव गहराए,
सत्य से उतनी ही दूर ले जाए।
पीड़ा उस भ्रम के मिटने की,
और असहनीय होती जाए।
कष्ट हो या कोई चिंता
कुछ भी स्थायी नहीं इस दुनिया में,
मिटना सभी को है एक दिन,
बदलाव को कौन है रोक पाया।
स्थायी केवल यह सत्य है,
जिसे बुध ने है पाया।
था तब भी, है अब भी
रहेगा आगे भी वही।

© Joginder Thakur