...

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दर्द ए ज़ुबां
वो मुहब्बत नशीन आंखें
जिक्र मुहब्बत भरी लफ्ज़ थी
गर वो दिलकश इज़हार थी
तो बदला बदला सा मिजाज़ क्यों है

रात गवाह है उसके मसरूफियत के
पास उसके हम भी तो थे
वो रहते कहीं और मुब्तला
फिर किस हक़ से यह मुहब्बत कहते है

ज़रा सी अल्फाज़ के मुख्तलिफ है
क़तरा क़तरा वो दर्द देते है
एक लम्हा पूछते भी नहीं
फिर वज़हत भी क्यों मांगते है

खयालात मेरा चाहने की क़रीब थी
नींद से मेहरूम किसी मर्ज़ मे डूबी
वो जानकर मुझको गले लगाया
फिर सुबह बहाना बनाकर क्यों ये डूबे थे

उसके उस खयालात ने
अपने इबादत से भी मेहरूम हुई
लफ्ज़ उनका इतना सख्त जानकर भी
क्यों ये दिल टूटकर बिखर गई

मै खुश थी जब एहसासात खयाल का था
जिन्दगी ऐसे ही गुज़र रही थी
गर उसमे कोई एहसास नहीं
तो वो बेदर्द मुझसे टकराया क्यों था

रब के मर्जी को मैंने तलाश की
एक मुस्तक़्बिल चाहत की
गर हर चाहत मे वो फर्क देखता है
तो क्यों ये रिश्ता रखना चाहता है

© Afi@