...

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आखिर कब तक ... ?
आखिर कब तक यूं ही सिर झुकाकर चलती रहेगी?
आखिर कब तक यूं ही सब चुपचाप सहती रहोगी?
आखिर कब तक यूं ही मुंह छिपाकर फिरती रहोगी?
आखिर कब तक यूं ही उनके तानों को सहती रहोगी?
आखिर कब तक यूं ही उनके अत्याचार सहती रहोगी?

आखिर कब तक... कब तक... कब तक...

माना, कि अर्धांगिनी हो तुम उसकी
लेकिन खरीद नहीं लिया है उसने तुम्हें
अगर हैसियत तुम्हारी कोडियों की है ... नजरों में उसकी
फिर वापिस जाना ही क्यों है तुम्हें ?

माना, कि एक पत्नी का दायित्व होता है
पति का हर हाल मे साथ निभाना
लेकिन जहां तुम्हारी कदर करनेवाला कोई नहीं...