...

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तुमसे मिलना
तुमसे मिलना कि जैसे
आईने का ये कहना
ढूंढती हो किसे हर पल दिन-रैन
ख्वाबों की डाल पर बसा है वही क्या ?
फिर आंखों को भींच बगल ताक लेना
तकते तुम्हारे अक्स का पिघलना, और गुम हो जाना
कि गुम होता है जैसे बचपन में तंग गलियां
कि उन्हीं गलियों में दो प्रेमी का मिलना
सबकी नज़रों से छुपकर, नज़रें चुराकर
चुरा लेते हैं होंठों की पंखुड़ियों से
वादे वफाएं अंजुरियों से भरकर
भरती हूं सांसें उसी आस की मैं
आसमां के बादल की नाव बनाकर
नाव से तैरते यूं होंठ तुम्हारे
और
उस मुस्कान में डूबती है सांझें हमारी,
मेरी आस सारी
सारी बातों को जोड़, चैन घटाएं
मन सौत बन पूछें, शोर मचाएं,
कि एक रोज़ तुमसे मिलकर मैं रहूंगी
मिलकर कहूंगी कि
तुमसे था मिलना कि जैसे इस
आईने का ये कहना
कि कहीं ढूंढती हो जिसे दूर तुम उपवन
बसा है जो इन आंखों में वही क्या ?

@दहलीज़
शिल्पी प्रसाद
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