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तुम मिलो चाहे जैसे भी
तुम मिलो चाहे जैसे भी,
कुछ अल्फाज ऐसे भी.....
तुम नहीं होती तो पतझार सा सूख जाता हूँ,
तेरे विरह में सूखने से टूट जाता हूँ।
मैं मिटकर खिलता हूँ कहीं बागों में,
आती जब तुम तुम्हें छूता चाहे कैसे भी।
तुम मिलो......
शरद रात में मैं दर्भ का बेटा हूँ,
ओंस सी आती जो तुम लिपट लेता हूं ।
चांद की रौशनी ऐसे रहम खाती हम पर,
लोगों को लगता है मैं मोती देता हूँ।
जालिम आफताब जब तुम्हें छीन लेता मुझसे,
मैं आग में झुलसा हुआ राह तेरी देखता हूँ।
और आसमान में फिर चांद आता तुझे साथ लेकर,
तुझसे लिपट जाता मैं कैसे भी ।
कुछ अल्फाज ऐसे भी............
© अरुण कुमार शुक्ल
कुछ अल्फाज ऐसे भी.....
तुम नहीं होती तो पतझार सा सूख जाता हूँ,
तेरे विरह में सूखने से टूट जाता हूँ।
मैं मिटकर खिलता हूँ कहीं बागों में,
आती जब तुम तुम्हें छूता चाहे कैसे भी।
तुम मिलो......
शरद रात में मैं दर्भ का बेटा हूँ,
ओंस सी आती जो तुम लिपट लेता हूं ।
चांद की रौशनी ऐसे रहम खाती हम पर,
लोगों को लगता है मैं मोती देता हूँ।
जालिम आफताब जब तुम्हें छीन लेता मुझसे,
मैं आग में झुलसा हुआ राह तेरी देखता हूँ।
और आसमान में फिर चांद आता तुझे साथ लेकर,
तुझसे लिपट जाता मैं कैसे भी ।
कुछ अल्फाज ऐसे भी............
© अरुण कुमार शुक्ल
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