...

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प्रेम ...समझ नही आया मन को
ये प्रेम नही समझ आया कभी मुझे
या तो प्रेम ने नहीं समझा मुझे

पहली बार छूआ था ये शब्द ने
मन को,बारिश की बूंद के जैसे
जो महका देती है बरसों से तरसती
सूखी धरा की सौंधी मिट्टी को

हाँ,याद है वो सिरहाने पर किया गया
पहला चुम्बन, वो थिरकती साँसे ,
वो लरजते लब वो पिघलती धड़कने
वो दूर रहकर भी जुड़ी रहे पतंग डोर को

अब ये प्रेम बहता है कभी आँसू बनकर
धधकता है शब्दों में घाव बनकर
चुभता है मौन के काटो सा और फिर
बरसों तड़पता है बिन मंजिल सफ़र को

ये प्रेम बरसता है बिखरता है
टूटता,निखरता है
बनता बिगड़ता ,मिटता नही 'प्रित'
ये प्रेम समझ नहीं आता मेरे मन को !!!!
© speechless words