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*** निगेवाह ***
*** कविता ***
*** निगेवाह ***
" वो हैं सामने अब मैं बात क्या करू,
उसकी नजर मुझपे निगेवाह हैं ,
उसकी नजर में फिर मैं तलाश क्या करु ,
रुखसते ख्याल क्या करु की ,
इस बात पे खामोशी पुरजोर हैं ,
वो हैं सामने अब मैं बात क्या करु ,
यूं देख के मुस्कुराना तेरा जायज़ ठहरा ,
इसके हद की मंज़िल कौन सी पार करु ,
निगेवाह हो रही बाते मेरी उस से ,
अब चाहत की मंज़िल कौन सी पार करु ,
वो हैं सामने अब मैं बात क्या करू ,
वाजिब ये भी हैं अनजान शख्स से ,
हसरतें जुस्तजू की मंज़िल कैसे पार करु ,
हो जरा तु ही मेहरबान इस ख्याले इश्क पे ,
मेरे तहरीर पे तेरे बेजुबान इश्क का जिक्र बार - बार करु ."
--- रबिन्द्र राम
© Rabindra Ram
*** निगेवाह ***
" वो हैं सामने अब मैं बात क्या करू,
उसकी नजर मुझपे निगेवाह हैं ,
उसकी नजर में फिर मैं तलाश क्या करु ,
रुखसते ख्याल क्या करु की ,
इस बात पे खामोशी पुरजोर हैं ,
वो हैं सामने अब मैं बात क्या करु ,
यूं देख के मुस्कुराना तेरा जायज़ ठहरा ,
इसके हद की मंज़िल कौन सी पार करु ,
निगेवाह हो रही बाते मेरी उस से ,
अब चाहत की मंज़िल कौन सी पार करु ,
वो हैं सामने अब मैं बात क्या करू ,
वाजिब ये भी हैं अनजान शख्स से ,
हसरतें जुस्तजू की मंज़िल कैसे पार करु ,
हो जरा तु ही मेहरबान इस ख्याले इश्क पे ,
मेरे तहरीर पे तेरे बेजुबान इश्क का जिक्र बार - बार करु ."
--- रबिन्द्र राम
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