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वक़्त..
एक आदत खो चुका हूँ
ख़ुद को वक़्त देने की
एक आदत खो चुका हूँ
प्रेम के ख़त लिखने की
क्या दिन क्या रात
जब देखो काम ही काम
कभी हो ख़ुद से फुर्सत तो
कभी उनका हो आराम
चाहता हूँ वक़्त से वक़्त
चुराना लेकिन मुश्किल है
कमबख्त़ वक़्त से घर आना,
कभी ख़्वाहिशें हसीन मौसम में
मचलती संग रहने की
जहां मुलाक़ात हो जज़्बात हो
और वक़्त भी बेहिसाब हो
पर एक नज़र जो वक़्त को
झांककर देखूं ,तो लगता है
अभी तो बहुत कुछ है उलझा पड़ा
....
© दीपक चंद्र
ख़ुद को वक़्त देने की
एक आदत खो चुका हूँ
प्रेम के ख़त लिखने की
क्या दिन क्या रात
जब देखो काम ही काम
कभी हो ख़ुद से फुर्सत तो
कभी उनका हो आराम
चाहता हूँ वक़्त से वक़्त
चुराना लेकिन मुश्किल है
कमबख्त़ वक़्त से घर आना,
कभी ख़्वाहिशें हसीन मौसम में
मचलती संग रहने की
जहां मुलाक़ात हो जज़्बात हो
और वक़्त भी बेहिसाब हो
पर एक नज़र जो वक़्त को
झांककर देखूं ,तो लगता है
अभी तो बहुत कुछ है उलझा पड़ा
....
© दीपक चंद्र
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