...

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मैं ...
रहकर मेैं झीलों के शहर में खुद भी झरने हो गया हूं माना बाटी नहीं धाराएं फिर भी मैं न जाने कितने पोखरों को भर रहा हूं,
खुद के आंखों की नमी को छुपाने देखा तो अब मैं अक्सर आंखों में चश्मा पहनता हूं कोई पूछे क्यों लाल है यह आंखें तो कुछ नहीं कह कर बाते मुकर रहा हूं,
फिर भी कुछ वक्त दिखावे की खुशियां रखता हूं चेहरे पे बनता हूं ऐसे जैसे जमाने का सबसे खुश इंसान में हूं कैसे बताऊं और किसे में इन सब के खातिर मैं खुद से ही लड़ रहा हूं,
देखकर संघर्ष और तकलीफ है मां-बाप की अक्सर में खामोश हो जाता हूं, चाहता...